आज-कल चुनावी मौसम में न जाने कितने लोग दल बदलते हैं। ये सिर्फ नेताओं तक ही सीमित नहीं है। आम पब्लिक भी रोज दल बदल रही है। हर जगह स्वार्थ का बोल-बाला है। सिद्धान्त विहीन होते परिवेश में राजनीति ही नहीं भावनाओं का खिलवाड बदस्तूर जारी है। बोलचाल की भाषा में उदंडता, तीखे तेवर और चिडचिडापन इस कदर हावी है कि अच्छे बूरे का अंतर सभी भूला बैठे हैं। जाति धर्म में बाँटकर सत्ता पाना एक मात्र उद्देश्य रह गया है जो जिस जगह सेट है वहाँ से निकलना नही चाहता। ऐसे में सवाल उठता है परिवर्तन कैसे हो। तर्कपूर्ण बात कहीं नही होती सब एक दूसरे का इतिहास बताते हैं डिबेट का स्तर गिरता जा रहा मुद्दे से अलग बात करना एक स्वभाव बन गया है । आम लोगों की भावनायें आहत न हो ऐसी सरकार की या प्रतिनिधी की जरूरत इस देश को है।ऐसे में यह जरूरी है कि आप सुनें सबकी करें अपने मन की यह आपका संविधान से प्राप्त मौलिक अधिकार भी है, लेकिन इस बात का भी ख्याल रखें कि अपना फैसला किसी दूसरे पर न थोपे और बिना मतलब के तू-तू मै-मै से बचें। आम तौर पर देखा जाता है कि आपस में अच्छे रिश्ते होने के बावजूद लोग चुनावी मौसम में रिश्तो में करवाहट पैदा कर लेते है जो नही होना चाहिए इन्ही झंझटो से बचने के लिए कई देशो में गुप्त मतदान कराया जाता है। वैसे हमारे यहां इस महंगाई में भी चुनाव में न जाने कितने धन-बल खर्च किए जाते है जिसे रोकने के लिए कई प्रयास हुए लेकिन आज भी यह जारी है। सवाल उठता है कि इतने पैसे के वगैर चुनाव क्या संभव नही है? अगर संभव है तो वैसी प्रक्रिया क्यों नही अपनायी जाती? क्या भविष्य में कोई विकल्प है इस लंबी प्रक्रिया और खर्चीला चुनाव से बचने का। ऐसे विषयों पर डिवेट और बुद्धिजीवियों की राय क्यों नही आती? सरल और स्थायी समाधान ढूंढने के लिए सर्वदलीय बैठक क्यों नही होते? क्या डिजिटल प्रक्रिया से सभी लोगो तक पहुँचा जा सकता है? अगर हां तो फिर इसका समाधान क्यों नही हुआ? बदलते समय के साथ परिवर्तन प्रकृति का स्वभाव है। पहले बैलेट और अब ईवीएम तो फिर डिजीटल क्यूं नही? अब इस समस्या से निजात दिलाने और पारदर्शिता के साथ निखारने के लिए उचित सुरक्षित डिजिटल प्रयोग करने की आवश्यकता है ताकि इस खर्चीली प्रक्रिया का हल निकाला जा सके।चुनावी प्रक्रिया में सारा तंत्र लग जाता है इस चुनाव के समय मे आम लोगो को भी काफी परेशानियां उठानी पडती है।
रोज के भाषण सड़क जाम बस की कमी अनेक तरह की परेशानियाँ है जो आम लोगो को उठाना पडता है देश का पूरा सुरक्षा तंत्र भी इस प्रक्रिया को पूरा करने में लगा दिया जाता है।आखिर कभी तो हल निकलेगा इस लंबी और जटिल प्रक्रिया का।चुनावी प्रक्रिया में धन का बढता उपयोग भी भ्रष्टाचार को कही न कही बढा रहा है। टिकट लेने से लेकर प्रचार तक रैलियाँ से लेकर बूथ तक हर जगह पैसो का बंदरबांट है हलांकि सभी के नियम और दायरे है फिर भी नियमो की अनदेखी जारी है। एक कारण और है वह है दलो की बढ़ती संख्या देश की राजनीति में दो ही दल होनी चाहिए पक्ष और विपक्ष इससे विपक्ष मजबूत होगा और सरकारें संतुलन बनाकर काम करेगी एक छोटी सी चूक उसकी कुर्सी ले लेगा ऐसा होने का डर ही भ्रष्टाचार पर अंकुश रख सकेगा।परिवारबाद और क्षेत्रीय मुद्दे नही बल्कि राष्ट्रीय मुद्दे पर ध्यान पुनः लौटेगी और विकसित राप्ट्र निर्माण की गति तेज हो सकेगी।मूलभूत मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष ध्यान देंगे जितनी कम पार्टीयाँ होंगी उतने खर्च भी कम होंगे और डिजिटल चुनाव होने से रैला, रैली, प्रचार बूथ आदि के खर्च नगण्य। वोटिंग और नतीजे एक साथ यह एक सोच है या मेरी कल्पना ये मै नही जानता लेकिन दुनियाँ के सबसे बडे लोकतंत्र के लिए यह एक पर्व है और देश के नीति निर्धारक भी इस विषय पर जरूर सोचते होंगे कि कैसे सुगम और इससे भी सरल प्रक्रिया विकसित की जाय ताकि लंबी खर्च से बचा जा सके।
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